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साम॑ द्वि॒बर्हा॒ महि॑ ति॒ग्मभृ॑ष्टिः स॒हस्र॑रेता वृष॒भस्तुवि॑ष्मान्। प॒दं न गोरप॑गूळ्हं विवि॒द्वान॒ग्निर्मह्यं॒ प्रेदु॑ वोचन्मनी॒षाम् ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sāma dvibarhā mahi tigmabhṛṣṭiḥ sahasraretā vṛṣabhas tuviṣmān | padaṁ na gor apagūḻhaṁ vividvān agnir mahyam pred u vocan manīṣām ||

पद पाठ

साम॑। द्वि॒ऽबर्हाः॑। महि॑। ति॒ग्मऽभृ॑ष्टिः। स॒हस्र॑ऽरेताः। वृ॒ष॒भः। तुवि॑ष्मान्। प॒दम्। न। गोः। अप॑गूळ्हम्। वि॒वि॒द्वान्। अ॒ग्निः। मह्य॑म्। प्र। इत्। ऊ॒म् इति॑। वो॒च॒त्। म॒नी॒षाम्॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:5» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मेधावी पुरुष को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (द्विबर्हाः) दो अर्थात् विद्या और विनय से वृद्ध (तिग्मभृष्टिः) तीव्र परिपाक जिसका ऐसा (सहस्ररेताः) परिमाण रहित पराक्रमयुक्त (वृषभः) बैल के सदृश श्रेष्ठ (तुविष्मान्) बहुत बलयुक्त (अग्निः) अग्नि के सदृश तेजस्वी और (विविद्वान्) विशेष करके पण्डित (गोः) गौ के (अपगूळ्हम्) गुप्त (पदम्) पैरों के चिह्न के (न) सदृश (मह्यम्) मुझ जानने की इच्छा करनेवाले के लिये (मनीषाम्) बुद्धि और (महि) बड़े (साम) सिद्धान्तित कर्म को (प्र, वोचत्) कहे (इत्, उ) फिर वही हम लोगों से सत्कार करने योग्य है ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। वही श्रेष्ठ विद्वान् है कि जो सब के लिये यथार्थज्ञान करावे। जैसे गौ के पैरों के चिह्न को खोज के गौ को प्राप्त होता है, वैसे ही पदार्थविद्या प्राप्त करने योग्य है ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मेधाविना किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

यो द्विबर्हाः तिग्मभृष्टिः सहस्ररेता वृषभ इव तुविष्मानग्निरिव विविद्वान् गोरपगूळ्हं पदं न मह्यं मनीषां महि साम च प्र वोचत् स इदु अस्माभिः सत्कर्त्तव्यः ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (साम) सिद्धान्तितं कर्म (द्विबर्हाः) द्वाभ्यां विद्याविनयाभ्यां वृद्धः (महि) महत् (तिग्मभृष्टिः) तिग्मा तीव्रा भृष्टिः परिपाको यस्य सः (सहस्ररेताः) अतुलवीर्यः (वृषभः) वृषभ इव श्रेष्ठः (तुविष्मान्) बहुबलः (पदम्) पादचिह्नम् (न) (इव) (गोः) धेनोः (अपगूळ्हम्) गुप्तम् (विविद्वान्) विशेषेण विपश्चित् (अग्निः) पावक इव तेजस्वी (मह्यम्) जिज्ञासवे (प्र) (इत्) एव (उ) (वोचत्) प्रोच्यात् (मनीषाम्) प्रज्ञाम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। स एव श्रेष्ठो विद्वान् यः सर्वान् प्रमां प्रापयेत्। यथा गोः पदमन्विष्य गां प्राप्नोति तथैव पदार्थविद्या प्राप्तव्या ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे, जो सर्वांना यथार्थ ज्ञान देतो, तोच श्रेष्ठ विद्वान असतो. जसा गाईच्या पदचिन्हांवरून गाईचा शोध घेता येतो तसेच पदार्थविद्येचे ज्ञान प्राप्त करता येते. ॥ ३ ॥